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अवा॑सृजन्त॒ जिव्र॑यो॒ न दे॒वा भुवः॑ स॒म्राळि॑न्द्र स॒त्ययो॑निः। अह॒न्नहिं॑ परि॒शया॑न॒मर्णः॒ प्र व॑र्त॒नीर॑रदो वि॒श्वधे॑नाः ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avāsṛjanta jivrayo na devā bhuvaḥ samrāḻ indra satyayoniḥ | ahann ahim pariśayānam arṇaḥ pra vartanīr arado viśvadhenāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अव॑। अ॒सृ॒ज॒न्त॒। जिव्र॑यः। न। दे॒वाः। भुवः॑। स॒म्ऽराट्। इ॒न्द्र॒। स॒त्यऽयो॑निः। अह॑न्। अहि॑म्। प॒रि॒ऽशया॑नम्। अर्णः॑। प्र। व॒र्त॒नीः। अ॒र॒दः॒। वि॒श्वऽधे॑नाः ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:19» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:6» वर्ग:1» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मेघ दृष्टान्त से राजगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्ययुक्त ! आप (भुवः) पृथिवी के मध्य में (सम्राट्) उत्तम प्रकार प्रकाशमान चक्रवर्त्ती (सत्ययोनिः) नहीं नाश होनेवाला कारण वा स्थान जिसका ऐसा सूर्य्य जैसे (परिशयानम्) अन्तरिक्ष में सब ओर से शयन करनेवाले (अहिम्) मेघ का (अहन्) नाश करता है (अर्णः) जल (वर्त्तनीः) मार्गों को (प्र, अरदः) अर्थात् करोदता है, वैसे ही शत्रुओं का नाश करके विराजमान हूजिये जो (विश्वधेनाः) समस्त वाणियोंवाले (जिव्रयः) दृढजीवनों के (न) समान (देवाः) चन्द्र आदि दिव्य पदार्थों के सदृश विद्वान् जन आपको (अव, असृजन्त) उत्पन्न करते हैं, उनका तुम संग करो ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे राजन् ! आप सत्य आचरण करनेवाले हुए यथार्थ वक्ताओं के सहाय से चक्रवर्त्ती सार्वभौम हूजिये और जैसे सूर्य्य मेघ का नाश करके संसार को सुख देता है, वैसे चोर डाकुओं का नाश करके प्रजाओं को आनन्द दीजिये ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मेघदृष्टान्तेन राजगुणानाह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! भवान् भुवः सम्राट् सत्ययोनिर्यथा सूर्य्यः परिशयानमहिमहन्नर्णो वर्त्तनीः प्रारदस्तथैव शत्रून् हत्वा विराजस्व ये विश्वधेना जिव्रयो न देवास्त्वामवाऽसृजन्त तांस्त्वं सङ्गच्छस्व ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अव) (असृजन्त) सृजन्ते (जिव्रयः) दृढजीवनाः (न) इव (देवाः) चन्द्रादयो दिव्याः पदार्था इव विद्वांसः (भुवः) पृथिव्या मध्ये (सम्राट्) यः सम्यग्राजते चक्रवर्त्ती (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (सत्ययोनिः) सत्यमविनाशि योनिः कारणङ्गृहं वा यस्य (अहन्) हन्ति (अहिम्) मेघम् (परिशयानम्) योऽन्तरिक्षे सर्वतः शेते तम् (अर्णः) उदकम् (प्र) (वर्त्तनीः) मार्गान् (अरदः) विलिखति (विश्वधेनाः) विश्वाः सर्वा धेना वाचो येषान्ते ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। हे राजंस्त्वं सत्याचारः सन्नाप्तसहायेन चक्रवर्त्ती सार्वभौमो भव यथा सूर्य्यो मेघं हत्वा जगत् सुखयति तथा दस्यून् विनाश्य प्रजा आनन्दय ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! तू सत्याचरणी बनून विद्वान लोकांच्या साह्याने चक्रवती सार्वभौम राजा हो व जसा सूर्य मेघाचा नाश करून जगाला सुख देतो, तसे चोर व दस्यूंचा नाश करून प्रजेला आनंदित कर. ॥ २ ॥